कथक नृत्य उत्तर प्रदेश का शास्त्रिय नृत्य है। कथक कहे सो कथा कहलाए। कथक शब्द का अर्थ कथा को थिरकते हुए कहना है। प्राचीन काल मे कथक को कुशिलव के नाम से जाना जाता
कथक राजस्थान और उत्तर भारत की नृत्य शैली है। यह बहुत प्राचीन शैली है क्योंकि महाभारत में भी कथक का वर्णन है। मध्य काल में इसका सम्बन्ध कृष्ण कथा और नृत्य से था। मुसलमानों के काल में यह दरबार में भी किया जाने लगा। वर्तमान समय में बिरजू महाराज इसके बड़े व्याख्याता रहे हैं। हिन्दी फिल्मों में अधिकांश नृत्य इसी शैली पर आधारित था। हैं।
इतिहास
प्राचीन काल से कथाकास, नृत्य के कुछ तत्वों के साथ महाकाव्यों और पौराणिक कथाओं से कहानियां सुनाया करते थे। कथाकास के परंपरा वंशानुगत थे। यह नृत्य पीढ़ी दर पीढ़ी उभारने लगा। तीसरी और चौथी सदियों के साहित्यिक संदर्भ से हमें इन कथाकास के बारे में पता चलता है। मिथिला के कमलेश्वर के पुस्तकालय में ऎसे बहुत साहित्यिक संदर्भ मिले थे।
तेरहवी सदी तक इस नृत्य में निश्चित शैली में उभर आया था। स्मरक अक्षरों और बोल की भी तकनीकी सुविधाओं का विकास हो गई। भक्ति आंदोलन के समय र। सलीला कथक पर एक जबरदस्त प्रभाव पड़ा। इस तरह का नृत्य प्रदर्शन कथावछकास मंदिरों में भी करने लगे। कथक राधा कृष्ण की के जीवन के दास्तां बयान करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। श्री कृष्ण के वृंदावन की पवित्र भूमि में कारनामे और कृष्ण लीला (कृष्ण के बचपन) के किस्से का लोकप्रिय प्रदर्शन किया जाता था। इस समय नृत्य आध्यात्मिकता से दुर हटकर लोक तत्वों से प्रभावित होने लगा था।
मुगलों के युग में फ़ारसी नर्तकियों के सीधे पैर से नृत्य के कारण और भी प्रसिद्ध हो गया। पैर पर १५० टखने की घंटी पहने कदमों का उपयोग कर ताल के काम को दिखाते थे। इस अवधि के दौरान चक्कर भी शुरु किया गया। इस नृत्य में लचीलापन आ गया। तबला और पखवाज इस नृत्य में पुरक है।
इसके बाद समय के साथ इस नृत्य में बहुत सारी महत्वपूर्ण हस्ती के योगदान से बदलाव आए।
नृत्य प्रदर्शन
नृत्त: वंदना, देवताओं के मंगलाचरण के साथ शुरू किया जाता है।
ठाट, एक पारंपरिक प्रदर्शन जहां नर्तकी सम पर आकर एक सुंदर मुद्रा लेकर खड़ी होती है।
आमद, अर्थात 'प्रवेश' जो तालबद्ध बोल का पहला परिचय होता है।
सलामी, मुस्लिम शैली में दर्शकों के लिए एक अभिवादन होता है।
कवित्, कविता के अर्थ को नृत्य में प्रदर्शन किया जाता है।
पड़न, एक नृत्य जहां केवल तबला का नहीं बल्कि पखवाज का भी उपयोग किया जाता है।
परमेलु, एक बोल या रचना जहां प्रकृति का प्रदर्शनी होता है।
गत, यहां सुंदर चाल-चलन दिखाया जाता है।
लड़ी, बोलों को बाटते हुए तत्कार की रचना।
तिहाई, एक रचना जहां तत्कार तीन बार दोहराया जाती है और सम पर नाटकीय रूप से समाप्त हो जाती है।
नृत्य: भाव को मौखिक टुकड़े की एक विशेष प्रदर्शन शैली में दिखाया जाता है। मुगल दरबार में यह अभिनय शैली की उत्पत्ति हुई। इसकी वजह से यह महफिल या दरबार के लिए अधिक अनुकूल है ताकि दर्शकों को कलाकार और नर्तकी के चेहरे की अभिव्यक्त की हुई बारीकियों को देख सके। क ठुमरी गाया जाता है और उसे चेहरे, अभिनय और हाथ आंदोलनों के साथ व्याख्या की जाति है।
घराना
लखनऊ घराना
अवध के नवाब वाजिद आली शाह के दरबार में इसका जन्म हुआ। आगरा शैली के कथक नृत्य में सुंदरता, प्राकृतिक संतुलन होती है। कलात्मक रचनाएँ, ठुमरी आदि अभिनय के साथ साथ होरिस (शाब्दिक अभिनय) और आशु रचनाएँ जैसे भावपूर्ण शैली भी होती हैं। वर्तमान में, पंडित बिरजु महाराज (अच्छन महाराजजी के बेटे) इस घराने के मुख्य प्रतिनिधि माने जाते हैं।
जयपुर घराना
राजस्थान के कच्छवा राजा के दरबार में इसका जन्म हुआ। शक्तिशाली ततकार, कई चक्कर और विभिन्न ताल में जटिल रचनाओं के रूप में नृत्य के अधिक तकनीकी पहलुएँ यहाँ महत्वपुर्ण है। यहाँ पखवाज का बहुत उपयोग होता है। यह कथक का प्राचीनतम घराना है।
बनारस घराना
जानकीप्रसाद ने इस घराने का प्रतिष्ठा किया था। यहाँ नटवरी का अनन्य उपयोग होता है एवं पखवाज (एक प्रकार का तबला जो उत्तर-भारतीय शैली में उपयोग आता है )तबला का इस्तेमाल कम होता है। यहाँ ठाट और ततकार में अंतर होता है। न्यूनतम चक्कर दाएं और बाएँ दोनों पक्षों से लिया जाता है।
रायगढ़ घराना
छत्तीसगढ़ के महाराज चक्रधार सिंह इस घराने का प्रतिष्ठा किया था। विभिन्न पृष्ठभूमि के अलग शैलियों और कलाकारों के संगम और तबला रचनाओं से एक अनूठा माहौल बनाया गया था। पंडित कार्तिक राम, पंडित फिर्तु महाराज, पंडित कल्यानदास महांत, पंडित बरमानलक इस घराने के प्रसिद्ध नर्तक हैं।




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