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ओड़िसी

 
ओड़िसी  ओडिशाप्रांत भारत की एक शास्त्रीय नृत्य शैली है। अद्यतन काल में गुरु केलुचरण महापात्र ने इसका पुनर्विस्तार किया।ओडिसी नृत्य को पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित नृत्य रूपों में से एक माना जाता है। इसका जन्म मन्दिर में नृत्य करने वाली देवदासियों के नृत्य से हुआ था। ओडिसी नृत्य का उल्लेख शिलालेखों में मिलता है। इसे ब्रह्मेश्वर मन्दिर के शिलालेखों में दर्शाया गया है। 

संयुक्ता पाणिग्रही (24 अगस्त 1944 – 24 जून 1997) [1] भारत की एक नृत्यांगना थीं जो ओड़िसी नृत्य के लिये प्रसिद्ध हैं। ओड़िसी नृत्य के क्षेत्र में आने वाली वे पहली उड़िया महिला थीं। उन्होने कम आयु में ही ओड़िसी नृत्य सीचना शुरू किया और इस नृत्य को पुनर्जीवन प्रदान किया।

ओडिसी नृत्य को पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर सबसे पुराने जीवित नृत्य रूपों में से एक माना जाता है। इसका जन्म मन्दिर में नृत्य करने वाली देवदासियों के नृत्य से हुआ था। ओडिसी नृत्य का उल्लेख शिलालेखों में मिलता है। इसे ब्रह्मेश्वर मन्दिर के शिलालेखों में दर्शाया गया है। 

ओडिसी नृत्य का इतिहास, महत्व 
इस नृत्य का जन्म बुद्धकालीन सहजयान और वज्रयान शाखाओं की साधना से हुआ। विभिन्न तरह की भाव – भंगिमाओं के साथ यह नृत्य भगवान को समर्पित है।

इस नृत्य का प्रधान भाग लास्य और अल्प भाग तांडव से जुड़ा हुआ है। इसी कारण से इस नृत्य में भरतनाट्यम और कत्थक का स्वरुप देखने को मिलता है।
गुरु केलुचरण महापात्र ने इस नृत्य को नया रूप दिया था। यह नृत्य अत्यंत पुराने नृत्यों में से एक है। इस नृत्य की शुरुआत देवदासियों (महरिस ) के नृत्य के साथ हुआ था। देवदासी जो मंदिरों में नृत्य किया करती थी। इस नृत्य के बारे में ब्रह्मेश्वर मंदिर के शिलालेखों में भी दर्शाया गया है।

धीरे – धीरे ये देवदासी शाही दरवारों में कार्य करने लगी और ओडिसी नृत्य का प्रचलन कम होने लगा। फिर इसी बीच पुरुषों ने मंदिरों में नृत्य करना शुरू कर दिया। पुरुषों के नृत्य समूह को गोटुपुआ कहा जाता था।

इस नृत्य का अस्तित्व ओडिसा के हिन्दू मंदिरों की मूर्तियों, हिन्दू, जैन, और बौद्ध धर्म के पुरातात्विक स्थलों में नृत्य मुद्राओं को देखने से पता चलता है। इस्लामिक शासन काल के समय यह नृत्य कला कम होने लगी थी और ब्रिटिश शासन काल में इसे बंद करवा दिया गया था।

कुछ समय बाद भारतीयों ने इसका विरोध किया और फिर इसका पुनर्निर्माण और पुनर्विस्तार हुआ। भुवनेश्वर के पास ही उदयगिरि और खंडगिरी की गुफाओं में इस नृत्य के प्रमाण देखने को मिलते हैं। 

नृत्य की कुछ विशेषताएं और मुद्राएं  –

(1) ओडिसी नृत्य पारम्परिक रूप से नृत्य – नाटिका की शैली है। इसकी दो प्रमुख स्थितियां हैं – चौक और त्रिभंग। चौक – इस मुद्रा में नर्तकी अपने शरीर को थोड़ा सा झुकाती है और घुटने थोड़ा सा मोड़ लेती है। दोनों हांथों को आगे की तरफ फैला लेती है। नवरसों और विभिन्न मुद्राओं को नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। यह पुरुषोचित मुद्रा कहलाती है। त्रिभंग – शरीर को तीन भागों – सर, शरीर और पैर में बांटकर उस पर ध्यान केंद्रित करते हुए नृत्य किया जाता है। इस नृत्य की मुद्राएं और अभिव्यक्तियाँ भरतनाट्यम के जैसी होती हैं। इसमें भगवान विष्णु जी के आठवें अवतार श्री कृष्ण जी की कथा बताते हैं। इस मुद्रा के द्वारा भगवान श्री जगन्नाथ जी की महिमा का वर्णन किया जाता है। यह नृत्य श्री कृष्ण जी को समर्पित है। इसमें आये हुए छंद संस्कृत नाटक ‘गीत गोविन्दम’ में से लिए गए हैं। जो जयदेव जी द्वारा रचित है। यह स्त्रियोचित मुद्रा कहलाती है।
(2) श्रृंगार करते हुए नर्तकी अपने आपको दर्पण में देखती है। इस मुद्रा को दर्पणी भंगी कहते हैं।
(3) नर्तकी अपनी सखी के आगे की तरफ झुक जाती है और दोनों हाथों को पोटला की मुद्रा में एक – दूसरे से जोड़ लेती है और शरीर त्रिभंग मुद्रा में होता है। यह एक अन्य अभिनय मुद्रा है।
(4) नृत्य में प्रयुक्त हस्त मुद्रा की सांकेतिक भाषा को ‘हस्ता’ कहते हैं। जो प्रतीकों,भावनाओं और शब्द विचारों को बताती है।
(5) हाथ में पुष्प लिए हुए एक प्रतीकात्मक मुद्रा है जिसे पुष्प – हस्त मुद्रा कहते हैं।
(6) कुछ मुद्राएं सजावटी या प्रतीकात्मक तौर पर प्रस्तुत की जाती हैं जिसे शुकचञ्चु कहते हैं।
(7) प्रदीप – हस्त मुद्रा में हाथों के द्वारा ऐसे प्रस्तुत किया जाता है कि मानो दीप प्रज्वल्लित किया जा रहा हो।   
(8) चिर – परिचित मुद्रा के द्वारा हिरण की थिरकती हुई दृष्टि को प्रदर्शित किया जाता है।
(9) कोणार्क के सूर्य मंदिर में इन मुद्राओं को देखा जा सकता है। जो अलसा और दर्पणी सहित कई भंगी मुद्राओं का प्रमाण देती है।
(10) लगभग सभी नृत्यों के लिए बांसुरी मुद्रा बनाई जाती है। उड़ीसा में बांसुरी को ‘वेणु’ कहा जाता है और इस नृत्य में बांसुरी को प्रदर्शित करने के लिए विशेष तरह की मुद्रा बनायीं जाती है। 

मंगलाचरण – यह प्रारंभिक एकक है। इसमें नर्तकी पुष्प लेकर मंच पर जाती है और धरती माँ को पुष्प अर्पित करती है और इष्टदेव, गुरु और दर्शकों का अभिवादन करती है।

बटु नृत्य  इस एकक में चौक और त्रिभंगी को दर्शाया जाता है।

पल्लवी  इसमें गीत की प्रस्तुति की जाती है , संगीतात्मक संयोजन को नर्तकी के द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।

थारिझाम  यह विशुद्ध नृत्य का भाग होता है।

त्रिखंड मंजूर  यह नृत्य का समापन भाग है। 

नाट्य – मंडली और वेश – भूषा –

ओडिसी नृत्य की नाट्य – मंडली में आम तौर पर एक पखावज वादक, एक बांसुरी वादक, एक गायक, एक सितार या वीणा वादक, एक मंजीरा वादक और नर्तक होते हैं। नर्तकी विशेष तरह के आभूषाओं को धारण करती है है जो चांदी के बने होते हैं।

केश-सज्जा पर विशेष ध्यान दिया जाता है जो कि बहुत आकर्षक होती है। बड़े आकार का जुड़ा बनाया जाता है जिसको पुष्पों और आभूषणों से सजाया जाता है। माथे पर चांदी का टीका लगाया जाता है।

इसमें साड़ी पहनने की विशिष्ट प्रक्रिया है। यह साड़ी स्थानीय रेशम से बनी हुई होती है। सामने की तरफ से प्लीट्स बना कर इस साड़ी को पहना जाता है। इसमें उड़ीसा के पारम्परिक प्रिंट होते हैं। हाथों और पैरों में आलता लगाया जाता है। 

इस नृत्य के प्रमुख कलाकार सोनल मानसिंह, गुरु पंकज चरण दास, गुरु केलुचरण महापात्र, पद्मश्री रंजना गौहर आदि हैं। इस नृत्य को प्रसिद्ध इन्द्राणी रहमान और चार्ल्स फैब्री ने बनाया है। श्रृंगार रस से युक्त यह नाट्य शैली शास्त्रीय नृत्यों में अपना विशेष स्थान रखती है। 

ओडिसी नृत्य वास्तव में एक अद्भुत नृत्य है जो आज भी अपनी कला को संजोय रखे हुए है। नर्तकी नृत्य के माध्यम से  देवदासियों या महरिस की ईश्वर के प्रति भक्ति में विशवास रखते हुए मोक्ष पाने की कामना करती है। 




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